ओशो साहित्य >> लाली मेरे लाल की लाली मेरे लाल कीओशो
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कबीर वाणी पर दिये गये प्रवचनों का संकलन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
कबीर इस देश को अपनी सधुक्कड़ी सिखावन से जितना आंदोलित कर सके उतना कोई
और सिद्धपुरुष नहीं कर सका; जितनी काव्यमय अभिव्यक्ति उन्होंने साधना के
इस रूखे-सूखे जगत को दी उतनी किसी ने नहीं दी। इसलिए कबीर जितना इस देश की
समष्टि के प्राणों में गहरे गए उतना कोई और नहीं पहुँच सका। उनकी सिद्धि
की लाली ने समस्त संवेदनशील साधना जगत को लाल कर दिया, निहाल कर दिया।
कबीर के साथ अनंत आकाश की ऊंचाइयों में हम उड़ पाते हैं लेकिन कबीर जितना
जमकर इस जमीन से जुड़े हैं उतना कोई और नहीं।
ओशो कहते हैं : ‘कबीर बे पढ़े-लिखे हैं, जुलाहे हैं। जो बोलते हैं वह जुलाहे की भाषा है। इसलिए प्यारी भी बहुत है। इसलिए सीधी-साधी भी बहुत है। उसमें मिट्टी की सौंधी सुगंध है। उसमें गांव की सरलता-सहजता है। जैसा खदान से अभी-अभी निकला हीरा, तराशा नहीं गया। अभी जौहरियों के हाथ नहीं पड़ा। अनगढ़ है; पर अनगढ़ है इसलिए प्राकृतिक है, नैसर्गिक है, स्वतः स्फूर्त है। उपनिषदों के वचन जौहरियों ने खूब निखारे हैं। बुद्ध के वचन एक सम्राट् के वचन हैं-सुसंस्कृत। महावीर के वचन में गणित है, गहरा तर्क है। आकाश को छू लेने वाली ऊंचाइयां हैं। कबीर के वचनों में जमीन में गड़ी हुई जड़े हैं।
अगर तुम कबीर को भी न समझ पाओ तो फिर किसी को भी समझ न पाओगे। इसलिए कबीर पर इतना बोला हूं। सबको बाद दी है-बुद्ध को, महावीर को, कृष्ण को। बोला हूं उन पर, इतना नहीं जितना कबीर पर। और कारण यही है कि अगर कबीर से चूक गए तुम तो फिर किसी को न समझ पाओगे। कबीर को समझ लिया तो सबको समझ लिया, जानना। क्योंकि कबीर तुम्हारे निकटतम हैं।’
संत कबीर को हुए आज छः सौ वर्ष हुए हैं और देश भर में उनका महोत्सव मनाने की खूब तैयारियां हो रही हैं। जो कि सुंदर हैं। होना चाहिए। लेकिन यह भी स्मरण रहे कि यह ऊपरी-ऊपरी न हो। हम उन्हें समझें, गुनें, उनकी लाली का लाल रंग हम पर भी चढ़े, तो कोई बात हो। ओशो का इशारा उसी दिशा में है।
ओशो कहते हैं : ‘कबीर बे पढ़े-लिखे हैं, जुलाहे हैं। जो बोलते हैं वह जुलाहे की भाषा है। इसलिए प्यारी भी बहुत है। इसलिए सीधी-साधी भी बहुत है। उसमें मिट्टी की सौंधी सुगंध है। उसमें गांव की सरलता-सहजता है। जैसा खदान से अभी-अभी निकला हीरा, तराशा नहीं गया। अभी जौहरियों के हाथ नहीं पड़ा। अनगढ़ है; पर अनगढ़ है इसलिए प्राकृतिक है, नैसर्गिक है, स्वतः स्फूर्त है। उपनिषदों के वचन जौहरियों ने खूब निखारे हैं। बुद्ध के वचन एक सम्राट् के वचन हैं-सुसंस्कृत। महावीर के वचन में गणित है, गहरा तर्क है। आकाश को छू लेने वाली ऊंचाइयां हैं। कबीर के वचनों में जमीन में गड़ी हुई जड़े हैं।
अगर तुम कबीर को भी न समझ पाओ तो फिर किसी को भी समझ न पाओगे। इसलिए कबीर पर इतना बोला हूं। सबको बाद दी है-बुद्ध को, महावीर को, कृष्ण को। बोला हूं उन पर, इतना नहीं जितना कबीर पर। और कारण यही है कि अगर कबीर से चूक गए तुम तो फिर किसी को न समझ पाओगे। कबीर को समझ लिया तो सबको समझ लिया, जानना। क्योंकि कबीर तुम्हारे निकटतम हैं।’
संत कबीर को हुए आज छः सौ वर्ष हुए हैं और देश भर में उनका महोत्सव मनाने की खूब तैयारियां हो रही हैं। जो कि सुंदर हैं। होना चाहिए। लेकिन यह भी स्मरण रहे कि यह ऊपरी-ऊपरी न हो। हम उन्हें समझें, गुनें, उनकी लाली का लाल रंग हम पर भी चढ़े, तो कोई बात हो। ओशो का इशारा उसी दिशा में है।
स्वामी चैतन्य कीर्ति
संपादक : ओशो टाइम्स इंटरनेशनल
संपादक : ओशो टाइम्स इंटरनेशनल
प्रश्न सार
• आज बड़ी मुद्दत के बाद आपके
सन्मुख होने का अवसर
मिला। एक अजब अनुभव से गुजरा। ऐसा लगता था जैसे आंखों के सामने प्रकाश ही
प्रकाश है। और बड़ी अजीब-सी सुगंध से नासापुट भर गए थे। रीढ़ में अंदर
पसीना-सा जा रहा था। मैं कहां था, खबर नहीं है। शब्दों का बस संगीत
था-पहली बार, अर्थ न था।....आनंद ! प्रभु आनंद !
* मुझ पर ऐसे जैन संस्कार पड़े हैं कि मन की सूक्ष्म वैचारिक अवस्था यानी आत्मा। और आप उसी मन को मारने के लिए, छोड़ने के लिए कहते हैं। मैं समझ नहीं पाता। दुविधा में पड़ा जाता हूं। कृपया प्रकाश डालें।
* आप कहते हैं, होनी होय सो होय। तो क्या कुछ न करें ? बस उसी पर छोड़ दें ?
पहला प्रश्न : भगवान ! आज बड़ी मुद्दत के बाद आपके सम्मुख होने का अवसर मिला। एक अजब अनुभव से गुजरा। ऐसा लगता था जैसे आंखों के सामने प्रकाश ही प्रकाश है। और बड़ी अजीब-सी सुरांध से नासापुट भर गए थे। रीढ़ में अंदर पसीना-सा जा रहा था। मैं कहां था, खबर नहीं है। शब्दों का बस संगीत था-पहली बार अर्थ न था।...आनंद प्रभु आनंद !
स्वभाव ! सन्मुख होना ही सत्संग है। लेकिन सन्मुख होना सिर्फ भौतिक अर्थों में कोई सार्थकता नहीं रखता। ऐसे तो कोई सामने बैठ सकता है और फिर भी उसकी पीठ हो। अगर मन में विचारों का ऊहापोह चल रहा है, तो सन्मुख हो कर भी तुम विमुख ही रहोगे। मन में ऊहापोह समाप्त हो गए हो, विचारों की तरंगें न हों, मन एक शांत झील हो गया हो-तो फिर तुम कहीं भी हो, सन्मुख हो।
सन्मुखता एक आंतरिक अवस्था है। बैठते-बैठते सत्संग में कभी घटती है। तुम्हारे घटाए तो घट नहीं सकती, कि तुम चाहो तो घट जाए। क्योंकि तुम्हारी चाह भी बाधा है। तुम्हारी चाह भी एक विचार है, एक चेष्टा है। और जहां विचार है, चेष्टा है, वहीं विमुखता है। इसीलिए अनायास ही घटती है। धैर्य चाहिए। बैठते रहे सत्संग में, उठते, रहे सत्संग में कोई जल्दी न की, कोई अपेक्षा न की-तो किसी न किसी दिन तुम अचानक अपने को सन्मुखता में पाओगे। और तब यह घड़ी घेर लेगी तुम्हें। यह अपूर्व अनुभव होगा। क्योंकि जब तुम सदगुरु के सन्मुख होते हो तो तुम भी मिट जाते हो, सदगुरु भी मिट जाता है।
इस आधारभूत बात को ठीक से समझ लेना। जब तक मैं का भाव है, तभी तक तू भी है। मैं और तू एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब तक शिष्य हैं तभी तक गुरु भी हैं। गुरु की तरफ से तो न गुरु है न शिष्य है। शिष्य की तरफ से शिष्य भी है और गुरु भी है। जैसे ही शिष्य भाव मिटा, जैसे ही तुम शांत हो गए, इतनी भी अस्मिता न रही इतना भी अहंकार न रहा कि मैं हूं, कि मैं शिष्य हूं, मैं धार्मिक हूं, कि संन्यासी हूं, कि सत्य का खोजी हूं, अन्वेषी हूं-ऐसा कोई भाव ही न रहा; एक निर्भावदशा हो गई-उसी क्षण गुरु भी मिट गया। न तुम रहे न गुरु रहा। तब अपूर्व प्रकाश का अनुभव होगा। वह प्रकाश मेरा नहीं है, वह प्रकाश तुम्हारा नहीं है; वह प्रकाश परमात्मा का है। जहां मैं नहीं, जहां तू नहीं वहां जो शेष रह जाता है उसी का नाम परमात्मा है-उस शून्य का उस सन्नाटे का।
वही हुआ। तुम कहते हो : आज बड़ी मुद्दत के बाद आप के सन्मुख होने का अवसर मिला।’ मुद्दत के बाद भी मिल जाए तो जल्दी है। मुद्दत के बाद भी मिल जाए तो सौभाग्य है। क्योंकि लोग इतने अंधे हैं, आते भी हैं मगर आते कहां हैं ! बहरे हैं, सुनते हैं मगर सुनते कहां ! न सुनते हैं, न देखते हैं; क्योंकि भीतर इतना उपद्रव चल रहा है, भीतर इतना शोरगुल मचा है। इस शोरगुल के कारण ही हम चूक रहे हैं। नहीं तो वृक्षों के पास बैठ जाएंगे, वहां भी यही प्रकाश प्रकट होगा। जहां बैठ जाओगे शांत होकर, मौन होकर, जहां मैं मिटा वहीं प्रकाश प्रकट हुआ। यह मैं की मृत्यु पर अनुभव होता है।
सन्मुख होने का इतना ही अर्थ है कि शिष्य का मैं मिट जाए। विमुख होने का अर्थ है-मैं सघन। फिर पीठ हो गुरु की तरफ या मुंह हो गुरु की तरफ कुछ भेद नहीं पड़ता। पासर हो कि हजार मील दूर रहो, कुछ फर्क नहीं पड़ता।
तुम कहते हो : एक अजब अनुभव गुजरा।
अजब लगेगा, क्योंकि कभी पहले हुआ नहीं। अन्यथा बिलकुल स्वाभाविक है, नैसर्गिक है। मगर जैसे अंधे आदमी को अचानक आंख मिले तो प्रकाश का अनुभव बड़ा अजब अनुभव होगा; हालांकि जिनके पास आंखें है वे कहेंगे, ‘इसमें अजब क्या, इसमें गजब क्या ? अंधे को आंख मिलें और फूलों के रंग दिखें और इंद्रधनुष सतरंगा और तितलियों के पंख। अजब अनुभव होगा। आंखवालों से कहेगे कि बड़ा अजब अनुभव हुआ; वे कहेंगे, ‘इसमें अजब क्या। फूलों में रंग होते हैं, इंदधनुष सतरंगा होता है, तितलियों के पर परमात्मा अपनी तूलिका से खूब रंगता है। इसमें अजब कुछ भी नहीं। मगर अंधा भी ठीक कह रहा है, ऐसा पहले नहीं हुआ था। उसके पास ऐसी कोई स्मृति नहीं है जिसके आधार पर हम समझ सके।
अजब का इतना ही अर्थ होता है कि हमारा अतीत कोई कुंजी नहीं देता, हमारा अतीत पृष्ठभूमि नहीं देता; हमारे अतीत से कोई संदर्भ नहीं उठता; हमारा अतीत एकदम अवाक रह जाता है, मौन रह जाता है, बोल भी नहीं पाता। एक क्षण को आश्चर्य-चकित, विमुग्ध, ठगे-ठगे हम रह जाते हैं। अवाक वाणी खो जाती है। शब्द खो जाते हैं, ज्ञान खो जाता है, सूझ-बूझ खो जाती है। एक रहस्य किसी अज्ञात लोक से उतर कर हमें घेर लेता है। हम रहस्य में नहा जाते हैं।
यह परमात्मा के अनुभव की शुरआत है स्वभाव ! परमात्मा ने पहली बार दस्तक दी तुम्हारे द्वार पर।
* मुझ पर ऐसे जैन संस्कार पड़े हैं कि मन की सूक्ष्म वैचारिक अवस्था यानी आत्मा। और आप उसी मन को मारने के लिए, छोड़ने के लिए कहते हैं। मैं समझ नहीं पाता। दुविधा में पड़ा जाता हूं। कृपया प्रकाश डालें।
* आप कहते हैं, होनी होय सो होय। तो क्या कुछ न करें ? बस उसी पर छोड़ दें ?
पहला प्रश्न : भगवान ! आज बड़ी मुद्दत के बाद आपके सम्मुख होने का अवसर मिला। एक अजब अनुभव से गुजरा। ऐसा लगता था जैसे आंखों के सामने प्रकाश ही प्रकाश है। और बड़ी अजीब-सी सुरांध से नासापुट भर गए थे। रीढ़ में अंदर पसीना-सा जा रहा था। मैं कहां था, खबर नहीं है। शब्दों का बस संगीत था-पहली बार अर्थ न था।...आनंद प्रभु आनंद !
स्वभाव ! सन्मुख होना ही सत्संग है। लेकिन सन्मुख होना सिर्फ भौतिक अर्थों में कोई सार्थकता नहीं रखता। ऐसे तो कोई सामने बैठ सकता है और फिर भी उसकी पीठ हो। अगर मन में विचारों का ऊहापोह चल रहा है, तो सन्मुख हो कर भी तुम विमुख ही रहोगे। मन में ऊहापोह समाप्त हो गए हो, विचारों की तरंगें न हों, मन एक शांत झील हो गया हो-तो फिर तुम कहीं भी हो, सन्मुख हो।
सन्मुखता एक आंतरिक अवस्था है। बैठते-बैठते सत्संग में कभी घटती है। तुम्हारे घटाए तो घट नहीं सकती, कि तुम चाहो तो घट जाए। क्योंकि तुम्हारी चाह भी बाधा है। तुम्हारी चाह भी एक विचार है, एक चेष्टा है। और जहां विचार है, चेष्टा है, वहीं विमुखता है। इसीलिए अनायास ही घटती है। धैर्य चाहिए। बैठते रहे सत्संग में, उठते, रहे सत्संग में कोई जल्दी न की, कोई अपेक्षा न की-तो किसी न किसी दिन तुम अचानक अपने को सन्मुखता में पाओगे। और तब यह घड़ी घेर लेगी तुम्हें। यह अपूर्व अनुभव होगा। क्योंकि जब तुम सदगुरु के सन्मुख होते हो तो तुम भी मिट जाते हो, सदगुरु भी मिट जाता है।
इस आधारभूत बात को ठीक से समझ लेना। जब तक मैं का भाव है, तभी तक तू भी है। मैं और तू एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब तक शिष्य हैं तभी तक गुरु भी हैं। गुरु की तरफ से तो न गुरु है न शिष्य है। शिष्य की तरफ से शिष्य भी है और गुरु भी है। जैसे ही शिष्य भाव मिटा, जैसे ही तुम शांत हो गए, इतनी भी अस्मिता न रही इतना भी अहंकार न रहा कि मैं हूं, कि मैं शिष्य हूं, मैं धार्मिक हूं, कि संन्यासी हूं, कि सत्य का खोजी हूं, अन्वेषी हूं-ऐसा कोई भाव ही न रहा; एक निर्भावदशा हो गई-उसी क्षण गुरु भी मिट गया। न तुम रहे न गुरु रहा। तब अपूर्व प्रकाश का अनुभव होगा। वह प्रकाश मेरा नहीं है, वह प्रकाश तुम्हारा नहीं है; वह प्रकाश परमात्मा का है। जहां मैं नहीं, जहां तू नहीं वहां जो शेष रह जाता है उसी का नाम परमात्मा है-उस शून्य का उस सन्नाटे का।
वही हुआ। तुम कहते हो : आज बड़ी मुद्दत के बाद आप के सन्मुख होने का अवसर मिला।’ मुद्दत के बाद भी मिल जाए तो जल्दी है। मुद्दत के बाद भी मिल जाए तो सौभाग्य है। क्योंकि लोग इतने अंधे हैं, आते भी हैं मगर आते कहां हैं ! बहरे हैं, सुनते हैं मगर सुनते कहां ! न सुनते हैं, न देखते हैं; क्योंकि भीतर इतना उपद्रव चल रहा है, भीतर इतना शोरगुल मचा है। इस शोरगुल के कारण ही हम चूक रहे हैं। नहीं तो वृक्षों के पास बैठ जाएंगे, वहां भी यही प्रकाश प्रकट होगा। जहां बैठ जाओगे शांत होकर, मौन होकर, जहां मैं मिटा वहीं प्रकाश प्रकट हुआ। यह मैं की मृत्यु पर अनुभव होता है।
सन्मुख होने का इतना ही अर्थ है कि शिष्य का मैं मिट जाए। विमुख होने का अर्थ है-मैं सघन। फिर पीठ हो गुरु की तरफ या मुंह हो गुरु की तरफ कुछ भेद नहीं पड़ता। पासर हो कि हजार मील दूर रहो, कुछ फर्क नहीं पड़ता।
तुम कहते हो : एक अजब अनुभव गुजरा।
अजब लगेगा, क्योंकि कभी पहले हुआ नहीं। अन्यथा बिलकुल स्वाभाविक है, नैसर्गिक है। मगर जैसे अंधे आदमी को अचानक आंख मिले तो प्रकाश का अनुभव बड़ा अजब अनुभव होगा; हालांकि जिनके पास आंखें है वे कहेंगे, ‘इसमें अजब क्या, इसमें गजब क्या ? अंधे को आंख मिलें और फूलों के रंग दिखें और इंद्रधनुष सतरंगा और तितलियों के पंख। अजब अनुभव होगा। आंखवालों से कहेगे कि बड़ा अजब अनुभव हुआ; वे कहेंगे, ‘इसमें अजब क्या। फूलों में रंग होते हैं, इंदधनुष सतरंगा होता है, तितलियों के पर परमात्मा अपनी तूलिका से खूब रंगता है। इसमें अजब कुछ भी नहीं। मगर अंधा भी ठीक कह रहा है, ऐसा पहले नहीं हुआ था। उसके पास ऐसी कोई स्मृति नहीं है जिसके आधार पर हम समझ सके।
अजब का इतना ही अर्थ होता है कि हमारा अतीत कोई कुंजी नहीं देता, हमारा अतीत पृष्ठभूमि नहीं देता; हमारे अतीत से कोई संदर्भ नहीं उठता; हमारा अतीत एकदम अवाक रह जाता है, मौन रह जाता है, बोल भी नहीं पाता। एक क्षण को आश्चर्य-चकित, विमुग्ध, ठगे-ठगे हम रह जाते हैं। अवाक वाणी खो जाती है। शब्द खो जाते हैं, ज्ञान खो जाता है, सूझ-बूझ खो जाती है। एक रहस्य किसी अज्ञात लोक से उतर कर हमें घेर लेता है। हम रहस्य में नहा जाते हैं।
यह परमात्मा के अनुभव की शुरआत है स्वभाव ! परमात्मा ने पहली बार दस्तक दी तुम्हारे द्वार पर।
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